राष्ट्रीय आदिवासी साहित्य महोत्सव में आज प्रथम दिन रायपुर के पंडित दीनदयाल उपाध्याय ऑडिटोरियम में आदिवासी साहित्य विषय पर परिचर्चा आयोजित की गई। प्रोफेसर डॉ. एस. जेड. एच. आबिदी ने परिचर्चा की अध्यक्षता की। परिचर्चा में विभिन्न राज्यों के 12 प्रतिभागियों ने भाग लिया।
लखनऊ विश्वविद्यालय की सेवानिवृत्त प्रोफेसर डॉ. आबिदी ने कहा कि आदिवासी साहित्य में प्रकृति प्रेम की झलक दिखती है। आदिवासियों का जल, जंगल व जमीन के प्रति भावनात्मक लगाव होता है। इसी पर आधारित गीत, नृत्य और विभिन्न आयोजनों की झलक साहित्य में परिलक्षित होती है।    छत्तीसगढ़ से प्रोफेसर रूद्र नारायण पाणिग्रही ने कहा कि छत्तीसगढ़ में विभिन्न 36 से अधिक प्रकार के जनजाति निवास करते हैं। इनकी प्रकृति से जुड़ी हुई समृद्ध संस्कृति है। आदिवासी संस्कृति पर साहित्य लिखने के लिए आदिवासियों की स्थानीय बोली के साथ 2 अलग-अलग भाषा में निपुण होना जरूरी है, तभी आदिवासियों की मूल संस्कृति को साहित्य के माध्यम से परिलक्षित किया जा सकता है। परिचर्चा में हैदराबाद यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर पी. सुब्बाचार्य, लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रविंद्र प्रताप सिंह, न्यू देलही से वर्जिनियस खाखा, टाटा इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंसेज मुंबई के प्रोफेसर डॉ बिपिन जोजो सहित विभिन्न प्रतिभागियों में व्यक्तव्य प्रस्तुत किए। परिचर्चा सत्र के अध्यक्ष डॉ. मदन सिंह वासकेल,  सहअध्यक्ष दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर डॉ. स्नेहलता नेगी भी उपस्थित थे।