बिलासपुर। यह महज इत्तेफाक ही है कि लोरमी इलाके के एक छोटे से गांव घठोली में जन्मे रामशरण यादव जिन्होंने नगर निगम के स्कूल में दस साल बाबूगिरी की वे आज उसी निगम में महापौर बने। 1994 में पहली बार पार्षद चुनाव लड़ने उन्होंने अपनी नौकरी से इस्तीफा दिया था। पहले के नेता में सत्यनारायण शर्मा तो अब के में प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष मोहन मरकाम के करीबी रामशरण कई नेताओं की नजर में खटकते भी हैं। इनमें खुद उनके समाज व पार्टी के नेता भी शामिल हैं। अपनी ठेठ देसी भाषा,तेज तर्रार तेवर और स्वाभिमान की वजह से अलग पहचान रखने वाले 57 साल के रामशरण को समझना होगा कि अब न वे पहले के रामशरण हैं और न बीआर यादव के जमाने की राजनीति और न ही उस जमाने के लोग और बिलासपुर शहर। प्रदेश के दूसरे बड़े नगर निगम में महापौर जैसी बड़ी जिम्मेदारी पाने वाले रामशरण की राह न तब आसान थी न अब है। बड़े हो चुके बिलासपुर में मेयर की कुर्सी कांटो के ताज से कम नहीं है। शहर की सबसे बड़ी समस्या पेयजल आपूर्ति कुछ दिनों बाद ही सुरसा के मुंह के समान बढ़ेगी और यहीं उनके लिए पहली व सबसे बड़ी चुनौती होगी। सत्ता और संगठन के बीच गहरी खाई को वे भले न पाट सके पर पुल का काम तो करना पड़ेगा। अगर ऐसा न कर पाए तो भी ये शहर उन्हें कुछ न कहेगा पर लोगों की उम्मीदों में खरा न उतरे तो जनता को उन्हें इसका जवाब देना होगा। 2014 के चुनाव में भाजपा के लहर से कहीं अधिक गुटबाजी,भीतर घात और खुला घात में उन्हें हार मिली थी पर इस बार निर्विरोध महापौर बने हैं। शहर को इनसे बहुत सी उम्मीदें है। देखना होगा कि वे इसमें कितना खरा उतर पाते हैं।@सुनील शर्मा की फेसबुक वाले से ।