योग शब्द का जिक्र वेदों, उपनिषदों, गीता एवं पुराणों में पुरातन काल से होता आया है। भारतीय दर्शन में योग एक महत्वपूर्ण शब्द है। आत्म-दर्शन एवं समाधि से लेकर कर्म क्षेत्र तक योग का व्यापक व्यवहार हमारे शास्त्रों में हुआ है। ‘योग दर्शन’ के उपदेष्टा महर्षि पतंजलि योग शब्द का अर्थ ‘वृत्ति निरोध’ करते हैं- ‘योगश्चित्तवृत्ति निरोध:” अर्थात ऐसी अवस्था जिसमें चित्त की वृत्तियों का निरोध हो जाये, वह योग है। आत्मा का परमात्मा के साथ योग कर समाधि का आनंद लेना ‘योग’ है। ऋषियों के अनुसार योग का तात्पर्य स्व-चेतना और चेतना के मुख्य केन्द्र परम् चैतन्य प्रभु के साथ संयुक्त हो जाना है। भारतीय संस्कृति में गीता का महत्वपूर्ण स्थान है। भारतीय सन्तों ने तो गीता के योग का प्रचार विश्वभर में किया है। गीता में योगेश्वर श्री कृष्ण योग को विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त करते हैं। अनुकूलता-प्रतिकूलता, सिद्धि-असिद्धि, सफलता-विफलता, जय-पराजय इन समस्त भावों में आत्मस्थ रहते हुए सम रहने को योग कहते हैं।

‘योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धन\जय।

सिद्धयसिद्धयो: समौभूत्वा समत्वं योग उच्यते॥

असंख्य भाव में दृष्टा बनकर अंतर की विश्व प्रेरणा से प्रेरित होकर कुशलता से कर्म करना गीता में योग माना गया है।- ‘योग: कर्मसु कौशलम्” जैनाचार्यों के अनुसार जिन साधनों से आत्मा की सिद्धि और मोक्ष की प्राप्ति होती है, वह योग है। अन्यत्र जैन दर्शन में मन, वाणी एवं शरीर की शक्तियों को भी कर्मयोग कहा गया है। योगी श्री अरविंद के अनुसार परमदेव के साथ एकत्व की प्राप्ति के लिये प्रयत्न तथा इसे प्राप्त करना ही सब योगों का स्वरूप है। इस प्रकार कह सकते हैं कि मन को एकाग्र कर संयमपूर्वक साधना करते हुए आत्मा का परमात्मा के साथ योग कर (जोड़ कर) समाधि का आनंद लेना योग है।

योग का अर्थ है, अपनी चेतना/अस्तित्व का बोध होना। अपने अंदर निहित शक्तियों को विकसित कर आत्मा का साक्षात्कार एवं पूर्ण आनंद की प्राप्ति करना योग है। इन यौगिक प्रक्रिया में विविध प्रकार की क्रियाओं का विधान हमारे ऋषि-मुनियों ने किया है। मुख्य रूप से अष्टांग योग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान एवं समाधि) से मानव पूर्ण स्वस्थ रह सकता है। योग से रक्त परिभ्रमण सुचारु रूप से होने लगता है। शरीर विज्ञान के सिद्धांत अनुसार शरीर के मंत्रोचन एवं विमोचन होने से शक्ति का विकास होता है तथा रोगों से छुटकारा मिलता है। आसन एवं प्राणायामों द्वारा शरीर की ग्रंथियों तथा माँसपेशियों में कर्षण-अपकर्षण, आकुंचन-प्रसारण तथा शिथिलीकरण की क्रियाएँ आरोग्य बनाती हैं। रक्त प्रदाय करने वाली धमनियाँ एवं शिराएँ भी स्वस्थ एवं सक्रिय हो जाती हैं। आसन एवं यौगिक क्रिया से पेन्क्रियाज एक्टिव होकर इन्स्युलिन ठीक मात्रा में बनाने लगता है, जिससे डायबिटीज आदि रोग दूर होते हैं। पाचन-तंत्र पर पूरे शरीर का स्वास्थ्य निर्भर करता है। सभी बीमारियों का मूल पाचन-तंत्र की अस्वस्थता है। योग से पाचन-तंत्र पूर्ण स्वस्थ हो जाता है, जिसमें शरीर स्वस्थ एवं स्फूर्तिदायक बन जाता है। योग से ह्रदय रोग जैसी गंभीर बीमारी से भी छुटकारा पाया जा सकता है। फेफड़ों में पूर्ण स्वस्थ वायु के प्रवेश से फेफड़े स्वस्थ होते हैं तथा दमा, श्वास, एलर्जी आदि से छुटकारा मिलता है। फेफड़ों में स्वस्थ वायु जाने से ह्रदय को भी बल मिलता है। यौगिक क्रियाओं से शरीर का भार कम होने पर, वह स्वस्थ, सुडौल एवं सुंदर बनता है। योग से इंद्रियों एवं मन का विग्रह होता है।

सु-स्वास्थ्य ही सम्पूर्ण सुखों का आधार है। स्वास्थ्य है तो जहान है, नहीं तो श्‍मशान है। ऋषियों ने ‘स्वस्थ” शब्द की बहुत ही व्यापक एवं वैज्ञानिक परिभाषा की है। स्वस्थ कौन है? आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ सुश्रुत में ऋषि लिखते हैं-

समदोषा: समग्निश्च समधातुमलक्रिय:

प्रसन्नात्मेन्द्रियमन: स्वस्थ इत्यभिधीयते॥

जिनके तीन दोष वात, पित्त एवं कफ सम हों, जठराग्नि सम हो, शरीर को धारण करने वाली सप्त धातुएँ रस, रक्त, मास, मेद, अस्थि, मज्जा तथा वीर्य उचित अनुपात में हो, मल-मूत्र की क्रिया सम्यक प्रकार से होती हो और दस इंद्रियों (कान, नाक, आँख, त्वचा, रसना, गुदा, उपस्थ, हाथ, पैर और जिह्वा), मन एवं इनकी स्वामी आत्मा भी प्रसन्न हो तो ऐसे व्यक्ति को स्वस्थ कहा जाता है। अच्छे स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिये आहार, निज एवं ब्रह्मचर्य तीन स्तम्भ हैं। इनके ऊपर यह शरीर टिका हुआ है।

भगवद् गीता में योगेश्वर श्री कृष्ण कहते हैं-

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।

युक्तस्वप्नावाबोधस्य योगो भवति दु:खहा॥

जिनके आहार, विहार, विचार एवं व्यवहार संतुलित एवं संयमित हैं। जिनके कार्यों में दिव्यता, मन में सदा पवित्रता एवं शुभ के प्रति अभीप्सा है, जिनका शयन एवं जागरण अर्थपूर्ण है, वही सच्चा योगी है। आजकल देश-विदेशों में सर्वत्र योग की चर्चा है। व्यापकता तथा अलौकिक शक्ति देने वाली विद्या होने से लोग योग की ओर आकर्षित हो रहे हैं।

प्रमुख आसन

कुछ आसन हैं, जिसके करने से मनुष्य को लाभ प्राप्त होता है, वह स्वस्थ बना रहता है।

  1.  ‘पद्मासन’- ध्यान के लिये उत्तम आसन है। मन की एकाग्रता तथा प्राणोत्थान में सहायक है। जठराग्नि को तीव्र करता है। वात-व्याधि में लाभदायक है।

  2.  ‘मत्स्यासन’- पेट के लिये उत्तम है। आँतों को सक्रिय कर कब्ज को दूर करता है। थाइराइड, पेराथाइड एवं एड्रिनल को स्वस्थ बनाता है। सर्वाइकल पेन या ग्रीवा की पीछे की हड्डी बढ़ी होने पर लाभदायक है। फेफड़ों के रोग दमा, श्वास आदि की निवृत्ति करता है।

  3.  ‘वज्रासन’- ध्यानात्मक आसन है। मन की चंचलता दूर करता है। घुटनों की पीड़ा दूर होती है। भोजन के बाद किया जाने वाला यह एकमात्र आसन है। इसके करने से अपचन, अम्ल पित्त, गैस, कब्ज से छुटकारा मिलता है। भोजन के बाद 5 से 15 मिनट तक करने से भोज्य का पाचन ठीक से हो जाता है।

  4.  ‘मण्डूकासन’- अग्नाशय (पेन्क्रियाज) को सक्रिय करता है। इसलिये इन्स्युलिन अधिक मात्रा में बनने लगता है। अत: डायबिटीज को दूर करने में सहायक होता है। उदर रोगों में उपयोगी और ह्रदय के लिये लाभदायक है।

  5.  ‘चक्रासन’- रीढ़ की हड्डी को लचीला बनाकर वृद्धावस्था नहीं आने देता। जठर एवं आँतों को सक्रिय करता है। शरीर में स्फूर्ति, शक्ति एवं तेज की वृद्धि करता है। कटि-पीड़ा, श्वांस रोग, सिर-दर्द, नेत्र विकारों, सर्वाइकल तथा स्पांडोलाइसिस में विशेष हितकारी है। हाथ-पैरों की माँसपेशियों को सबल बनाता है। महिलाओं के गर्भाशय के विकारों को दूर करता है।

  6.  ‘मर्कटासन’- कमर-दर्द, सर्वाइकल स्पांडोलाइटिस, स्लिप-डिस्क एवं सायटिका में विशेष लाभकारी है। पेट-दर्द, दस्त, कब्ज एवं गैस को दूर कर पेट को हल्का बनाता है। नितम्ब, जोड़ के दर्द में विशेष लाभदायक है। मेरूदण्ड की सभी विकृतियों को दूर करता है।

  7.  ‘भुजंगासन’- सर्वाइकल, स्पांडोलाइटिस एवं स्लिप-डिस्क, समस्त मेरू दण्ड रोगों के लिये अति-महत्वपूर्ण है।

  8.  ‘धनुरासन’- मेरू दण्ड को लचीला एवं स्वस्थ बनाता है। सर्वाइकल स्पांडोलाइटिस, कमर-दर्द एवं उदर-रोगों में लाभदायक है। नाभिटलना दूर करता है। स्त्रियों की मासिक धर्म संबंधी विकृतियों में लाभदायक है। गुर्दों को पुष्ट कर मूत्र विकार को दूर करता है।

  9.  ‘मकरासन’- स्लिप-डिस्क, सर्वाइकल आदि के लिये यह लाभकारी है। अस्थमा तथा फेफड़े संबंधी किसी भी विकार तथा घुटनों के दर्द के लिये विशेष गुणकारी है।

  10.  ‘अर्धमत्स्येन्द्रासन’- मधुमेह एवं कमर-दर्द में लाभकारी है। पृष्ठ देश की सभी नस-नाड़ियों में रक्त संचार को सुचारु रूप से चलाता है। उदर विकारों को दूर कर आँतों को बल प्रदान करता है।

इन यौगिक क्रियाओं को करने से मानव पूर्ण रूप से स्वस्थ रहता है। योग ही ऐसी विद्या है जो प्राणी-मात्र को सफल जीवन की कला सिखाती है। अमृत्व से सत, मृत्यु से अमृत्व, अंधकार से प्रकार, दु:ख से परम-सुख, असफलता से सफलता की ओर अग्रसर करने के लिये योग ही एकमात्र विज्ञान है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *